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जीवन कथाएँ >> मीरा और महात्मा

मीरा और महात्मा

सुधीर कक्कड़

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2723
आईएसबीएन :81-267-1008-x

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बापू और मीरा पर आधारित उपन्यास....

Meera aur mahatma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सन् 1925, भारत का स्वतंत्रता संग्राम बिखरी हुई हालत में था, नेताओं के बीच मतभेद पैदा हो रहे थे, और पूरे देश में साम्प्रदायिक वैमनस्य की घटनाएँ हो रही थीं। इस दौरान, सक्रिय राजनीति से अलग-थलग बापू गाँधी साबरमती आश्रम में अपने जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण गतिविधि में संलग्न थे। वे आत्मानुशासन, सहनशीलता और सादगी के उच्चतर मूल्यों को समर्पित एक समुदाय की रचना में व्यस्त थे। बापू की इसी दुनिया में पदार्पण हुआ एक ब्रितानी एडमिरल की बेटी मेडलिन स्लेड का जो बाद में मीरा के नाम से जानी गईं।

गाँधी जी के लिए जहाँ वास्तविक आध्यात्मिकता का अर्थ था आत्मानुशासन और समाज के प्रति समर्पण, वहीं मीरा मानती थीं कि सत्य और सम्पूर्णता का रास्ता मानव रूप में साकार शाश्वत आत्मा के प्रति समर्पण में है, और यह आत्मा उन्हें गाँधी में दिखाई दी। इस प्रकार दो भिन्न आवेगों से परिचालित इन दो व्यक्तियों के मध्य एक असाधारण साहचर्य का सूत्रपात हुआ।
विख्यात मनोविश्लेषक-लेखक सुधीर कक्कड़ ने बापू और मीरा के 1925 से लेकर 1930 तक फिर 1940-42 तक के समय को इस उपन्यास का आधार बनाया है, जिस दौरान, लेखक के अनुसार वे दोनों ज्यादा करीब थे। ऐतिहासिक तथ्यों की ईंटों और कल्पना के गारे से चुनी इस कथा की इमारत में लेखक ने बापू और मीरा के आत्मकथात्मक लेखों, डायरियों और अन्य समकालीनों के संस्मरणों का सहारा लिया है।

राष्ट्रपिता को ज्यादा पारदर्शी और सहज रूप में प्रस्तुत करती एक अनूठी कथाकृति।

बापू, मैं किसी मूर्ति की नहीं बल्कि जीवित देवता की पूजा करती हूँ। आप शाश्वत हैं। अनादि, शाश्वत की पूजा करना बुतपरस्ती नहीं हैं। दरअसल, कभी-कभी मैं सोचती हूँ। आप पत्थर की मूर्ति होते। तब मैं आपको हर सुबह नहाती, चन्दन का लेप करती, और आपके पैरों पर पुष्प-धूप चढ़ाती। आप अपने पैरों को हटा नहीं पाते और मुझे पूजा करने देते। आप मेरे प्रेम, भक्ति को स्वीकार क्यों नहीं कर सकते ‍? क्या आप ऐसे भगवान हैं जो अपने परम भक्त से दूर होना चाहते है ? या आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए परीक्षा है, जैसा कि हिन्दू देवी-देवता अपने भक्तों और सन्तों की लिया करते हैं। क्या आप यह जाँचना चाहते हैं कि मैं कितना तिरिस्कार सह सकती हूँ और फिर भी प्रेम करना नहीं छोड़ती ‍? ओह मेरे प्रिय आपको आश्चर्य होगा कि मैं कितना कुछ सह सकती हूँ यद्यपि मुझमें कमजोरी भी उभरती है।... इस कमजोरी पर मुझे विजय पाना ही होगा। आप अक्सर कहते हैं-‘मुझे खुद को शून्य बनाना होगा ताकि ईश्वर मेरे माध्यम से काम करें, जहाँ चाहे उधर ले जाए।’ अपने ईश्वर के लिए मुझे भी खुद को शून्य बनाना होगा। और ओह मेरे प्रिय चिकित्सक, मेरे रोग की आपने कितनी गलत पहचान की है। आप से वियोग ही मेरा रोग है। आपकी अनुपस्थिति ही मेरी व्यथा है। मेरे रोग का एक ही उपाय है- आपकी उपस्थित आपकी वापसी मेरा डॉक्टर ही मेरे रोग का कारण है वही मेरा इलाज है और एकमात्र चिकित्सक।


आपकी मीरा

 

इसी पुस्तक में उद्धत एक पत्र का अंश


भूमिका

 

 

यह 1925 से 1930 और 1939 से 1942 के उन नौ वर्षों की सच्ची कहानी है जब मेडलिन स्लेड (उर्फ मीराबाई) और गाँधी का जीवन एक-दूसरे के काफी करीब था। दोनों का साथ लम्बा रहा लेकिन इन वर्षों में वे एक-दूसरे के जितने करीब रहे उतने और कभी नहीं रहे। मीराबाई जब लन्दन छोड़कर अहमदाबाद में गाँधी के आश्रम में रहने आई थीं तब 33 वर्ष की थीं। और गाधी 56 के थे। मैंने यह कहानी यथासम्भव उन्हीं के शब्दों में कहने की कोशिश की है-उन शब्दों में जो उनकी आत्मकथाओं, पत्रों डायरियों और दूसरों के संस्मरण में दर्ज हैं। मैंने सिर्फ यह किया है कि विवरण को सामंजस्य प्रदान करने के लिए उस तत्व का प्रयोग किया है जिसे कल्पनाशीलता कहते हैं। यह कल्पनाशीलता फंतासी और परानुभूतीय पहचान का विचित्र मेल होती है। इस कहानी रूपी इमारत के ईंट-पत्थर जीवन से उठाए गए हैं और गारा-सीमेंट है कल्पनाशीलता।

इस तरह, मीरा को लिखे गाँधी का पत्र पृथ्वी सिंह और मीरा के एक-दूसरे के नाम पत्र, सबको नई दिल्ली के नेहरू स्मारक संग्रहालय पुस्तकालय में देखा जा सकता है। आश्रम जीवन के कई विवरण, खासकर वे जो सबसे असम्भव दिखते हैं, वास्तविक घटनाओं पर आधारित हैं। लेकिन इस पुस्तक में रोमाँ रोलाँ को लिखे मीरा के पत्र, मीरा की डायरियाँ काल्पनिक हैं। परन्तु ये कल्पनाएँ ऐतिहासिक ब्यौरों को न तोड़ती- मरोड़ती हैं, न उनका अतिक्रण करती हैं।


मीरा और महात्मा

 


25 अक्टूबर 1925, फ्रांस का दक्षिण इलाका। शरद ऋतु की थोड़ी गरम सुहानी सुबह। 33 वर्षीया अंग्रेज महिला मेडलिन स्लेड मार्सेलिस बन्दरगाह पर खड़े पी एंड ओ पोत के जेट्टी तक आ जाती हैं। यह पोत दिन में बम्बई की ओर रवाना होनेवाला है। यह जहाज तड़के सुबह से ही अपने इंजन को गरम कर रहा है। दोपहर से ठीक पहले वह अपने विशाल लंगर को समेटता है और बन्दरगाह से बड़ी शान के साथ सरकने लगता है। इसके साथ ही वह अपनी परिचय शैली में सलाम ठोंकने की मुद्रा में अपने भोंपू से छत आवाज़ लगाता है। मेडलिन यूरोप की छूटती तटरेखा को देखने के लिए जहाज की छत पर आकर लोहे की रेलिंग से अड़ कर खड़ी नहीं होती। अधिकतर दूसरे यात्रियों के विपरीत मेडलिन के लिए यह कोई विदाई का मौका नहीं था। अधिकतर ब्रिट्रिश लोग या तो पहली बार किसी उपनिवेश की ओर जा रहे होते थे या घर पर छुट्टी बिताकर अपने श्वेत मित्रों का बोझ बाँटने के लिए काम पर लौट रहे थे, लेकिन मेडलिन तो एक आदिम उम्मीद से भरी दुनिया की ओर जा रहीं थीं।

उनका सामान था-लोहे के दो नए सन्दूक और गाय के उम्दा चमड़े से बना थैला, जिसके पीतल के बकलस और किनारों को मजबूती देनेवाली पीतल की पट्टियाँ हाल में ही चमकाई गई थीं। सन्दूकें किताबों से भरी थीं किताबें उनकी निजी पुस्तकालय से चुनी गई थीं। किशोरवय से इकट्ठा की गई उनकी किताबों की संख्या चार सौ से ऊपर पहुँच चुकी थी। वे खासतौर से दर्शन और इतिहास की पुस्तकें चुन कर साथ ले जा रही थीं। निर्वैयक्तिक ज्ञान की भंडार ये पुस्तकें उन्हें उस अतीत से जोड़ने में असमर्थ थीं। जिससे पीछा छुड़ाना उतना नहीं चाहती थी जितना उसे यादों की सुरक्षित तिजोरी में बन्द कर देना चाहती थीं। अपनी समुद्री यात्रा के दौरान उन्होंने जिन पुस्तकों में ध्यान केन्द्रित करने के लिए उन्हें हाल में खरीदा था वे उर्दू व्याकरण, भागवत गीता और ऋग्वेद का फ्रांसीसी अनुवाद, फ्रांसीसी-अंग्रेजी का विशाल शब्दकोश और हाल में प्रकाशित गाँधी की दो जीवनियाँ थीं जिनमें से एक, फ्रांसीसी भाषा में थी- रोमाँ रोलाँ की ‘महात्मा गांधी’। कुछ समय के लिए मेडलिन ने विचार किया था कि ज्याँ क्रिस्ताफे साथ रखें या नहीं। संगीतकार बीथोवेन के जीवन पर दस खंडों में लिखे रोलाँ के इस उपन्यास को उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में कई-कई बार पढ़ डाला था, जब वे इस संगीतकार के प्रति बेहद आकर्षित थीं। अन्ततः उन्होंने यह उपन्यास साथ न रखने का फैसला किया था लेकिन उन्होंने एक सन्दूक में पतली-सी पुस्तक ‘विए डि बीथोवेन’ को रख ही लिया था। बीथोवेन अभी उस अतीत का हिस्सा नहीं बने थे जिसे वे सुरक्षित तिजोरी में बन्द करने जा रही थीं। वैसे, यह सच है कि वे अब उनकी चेतना पर पूरी तरह जीवन्त सत्ता की तरह हावी नहीं थे। लेकिन वे हमेशा के लिए उनके जीवन से विदा भी नहीं हुए थे कि वे उनमें भावना की कोई लहर न पैदा कर सकें।

चमड़े के थैले में सफेद खादी के नए, आकारविहीन पाँच फ्राक के अलावा थैले में दो शेटलैंड ऊन में बुनकर, रँगकर तैयार किया था। इसके साथ ही दो सूती अंडरवियर, दो जोड़े जूते और गहनों का छोटा-सा बक्शा भी था जिसे वे गाँधी के आश्रम को दान में देनेवाली थीं। अपनी बाकी चीज़ें वे माता-पिता के घरेलू नौकरों-नौकरानियों को दान कर चुकी थीं। वैसे, उनके पास बहुत ज्यादा चीजें थी भी नहीं क्योंकि फैशनेबल कपड़ों या गहनों के प्रति उनका लगाव कभी रहा नहीं। यद्यपि वे अपने पिछले जीवन से रिश्ता तोड़ लेना चाह रही थीं। लेकिन यह कहा जा सकता है कि चमड़े का वह थैला उस रिश्ते के प्रति थोड़ी-सी भावुकता का प्रतीत जरूर था। यह उनकी पिछली भारत यात्रा का स्मृतिचिन्ह था। यह यात्रा उन्होंने 18 वर्ष पहले की थी, जब वे पन्द्रह साल की थीं।

वह एकदम अलग किस्म की यात्रा थी। उनके पिता हाल में शाही बेड़े के एडमिरल पद पर प्रोन्नति पाने के बाद बम्बई में ईस्ट इंडीज स्टेशन की कमान सँभालने के लिए जाने वाले थे। स्लेड परिवार में उनके साथ उनकी पत्नी, बेटियाँ मेडलिन तथा रहोना और पुरानी नर्स बर्था भी थी जिसे मालकिन की नौकरानी का दर्जा दे दिया गया था। ये सब पी एंड ओ जहाज के सबसे महत्त्वपूर्ण यात्री थे। उनके सामान में लकड़ी की बीस क्रेट और सभी आकार के लोहे के सन्दूक शामिल थे। सन्दूक में शाम के पहने वाले परिधान, पार्टियों में पहने जाने वाले फ्राक फैशनेबल टोपियाँ अडमिरल की वर्दियाँ जिन पर सोने की कढ़ाई की हुई थी, टेनिस और घुड़सवारी के परिधान, जीन और लगाम, दोहरे फेल्ट हैट, एंटी कालर बेल्ट, गरम इलाकों में होनेवाली बीमारियों के लिए दवाओं की शीशियाँ और तमाम वे चीजें भरी हुई थीं जो, उनकी माँ के खयाल से बम्बई में एडमिरल के बंगले को लन्दन के उनके मकान जैसा बना सकती थीं।

उस यात्रा की यादों ने मेडलिन के मस्तिष्क को भटकाया नहीं। उन्हें एक व्यक्ति, एक स्थिति एक विचार सरणि पर एकाग्रचित होने और असंगत तथा अनावश्यक बातों को इच्छानुसार परे रखने की अपनी सहज वृत्ति पर गर्व था। दूसरे शब्दों में, वे एकाग्रचित होने का प्रयास न करते हुए भी एकाग्रचित हो सकती थीं, अपनी पिछली मुलाकात में रोमाँ रोलाँ ने उनकी इस क्षमता को ‘‘वरदान में मिली आध्यात्मिकता की पक्की निशानी’’ कहा जाता था। उनके अन्तर में बैठे पहरेदार पर हमेशा भरोसा किया जा सकता था कि किसी अनचाहे अतिक्रमणकारी को बिना अनुमति के उनके अस्तित्व में प्रवेश करने नहीं देगा, प्रायः हमेशा। एक तो उन्हें अपने सपनों की याद कभी नहीं आती। दूसरे, उन्हें सुबह-सवेरे नींद टूटने से पहले आने वाले किसी सपने का असर नहीं होता था, जो पूरे दिन के मूड को तय कर दिया करता है। अपनी यात्रा के दौरान वे अपने विचारों और भावनाओं को कर्तव्य मानकर लेखनीवद्ध करती रहीं। यह सारा लेखन वे बम्बई पहुँचकर रोलाँ को स्विट्जरलैंड भेजनेवाली थीं। यह लेखन महात्मा गांधी के आश्रम में शुरू होने वाले उनके भावी जीवन के ही इर्द-गिर्द था।

हर शाम पूरब दिशा से उगनेवाला चाँद भूमध्यसागर की स्थिर सतह पर रोशनी की झिलमिलाहट के रूप में पसर जाता। रोशनी की यह पतली-सी गली चांद बढ़ती गोलाई के साथ चौड़ी होती जाती थी। मेडलिन देर रात जहाज की छत पर खड़ी रहतीं, जब चारों ओर नीरवता छा जाती। बस कभी-कभार जहाज के बार्ड पर प्रेमी युगलों की फुसफुसाहट ही इन नीरवता को तोड़ती वरना सन्नाटा ही पसरा होता। जहाज के इंजन की भारी-सी आवाज़ अब खलल नहीं पैदा करती थी बल्कि इस विशेष किस्म के सन्नाटे का हिस्सा बन गई थी। मेडलिन जहाज के अग्रभाग में लोहे की रेलिंग से सटकर खड़ी हो जाती और सामने पसरी चाँदनी की उसी पट्टी को निहारती रहतीं जो अंधेरे क्षितिज में जाकर विलीन हो जाती। धीरे-धीरे वे महसूस करतीं कि वे स्मृति-मुक्त अवस्था में पहुँच गई हैं, जहाँ तमाम तत्त्व एवं आकार उनके विचारों से धीरे-धीरे खिसककर अलग हो रहे हैं और उस जहाज का हिस्सा बनते जा रहे हैं जो रोशनी की लकीर पर आगे बढ़ रहा होता।

‘स्मृति-मुक्त अवस्था मेरे शब्द हैं, मेडलिन के पूर्व हिन्दी शिक्षक के, जो उनका जीवनीकार बनने जा रहा है। ये ज्ञान की तलाश में अज्ञानता के शब्द हैं। इस अवस्था को मेडलिन ने अपनी डायरी में ‘‘अनुग्रह का क्षण’’ कहा है। इस तरह के काल मुक्त क्षणों से वे बचपन से परिचित रही हैं। ये क्षण उन्हें अकसर तब घेर लेते जब वे प्रकृति के करीब अकेली होतीं। उदाहरण के लिए तब जब वे गरमी में धूप चितकबरी हुई किसी सुबह जंगल में टहलने निकल जातीं और वहाँ धूप में चमकते किसी पत्थर से टिका अबाबील का नाजुक-सा घोंसला नज़र आ जाता। या उनकी आँखें गहरे पीले डेंडेलियन के झुरमुट पर पड़ जातीं और उसमे उन्हें ‘शाश्वतता का सूत्र’ दिख जाता। सम्पूर्ण कुशलक्षेम के या तमाम कसौटियों से मुक्त अस्तित्व के ये क्षण तमाम विशेषणों से ऊपर होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे वे स्त्रीत्व की ओर बढ़ती गईं, ये क्षण दुर्लभ होते गए। कई वर्षों तक इन क्षणों ने उनका साथ पूरी तरह छोड़ दिया, जब तक कि उन्होंने रोलाँ के गद्य में गाँधी का साक्षात्कार नहीं किया। तब उन्होंने महसूस किया कि ‘‘अनुग्रह के अग्रदूत मेरे हृदय में जैसे आकर फुसफुसाने लगे’’, इस तरह के व्यग्र गद्य उन्होंने अपनी डायरी में लिखे। उन्हें तभी इस बात का विश्वास हो गया था कि उनका भावी पथ क्या है। अपनी डायरी में उन्होंने लिखा, ‘‘अज्ञात नियम के फन्दे से बाहर निकलने के लिए मैंने अनुग्रह को एकमात्र विश्वसनीय मार्गदर्शक के रूप में देखा है।’’

मेडलिन के परिवार ने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की थी। इस पर खुद उन्हें छोड़कर हर किसी को आश्चर्य हुआ था। आखिर उनके पिता ब्रिटिश नौसेना के पहले अधिकारियों में से थे और देश के आला अधिकारियों और मंत्रियों से उनके अच्छे सम्बन्ध थे। वे साम्राज्य की रक्षा और स्थिरता के प्रति समर्पित थे। ऐसे शख्स की बड़ी बेटी ऐसे आदमी से जुड़ते जा रही थी जिसे अंग्रेज लोग ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे दुराग्रही शत्रु मानते थे।

‘‘जब उन्होंने जान लिया कि मैं गम्भीर हूँ, कि मैं अपनी आत्मा की गहरी आवश्यकता की पूर्ति करना चाहती हूँ तो मेरे माता-पिता, दोनो ने मेरे निर्णय का सम्मान किया। बल्कि पिता ने तो मेरी मदद भी की, जब मैंने उनसे कहा कि यहाँ के जीवन के लिए खुद को तैयार करने लिए मुझे भारतीय भाषा सीखनी होगी। उन्होंने भारत के लिए सेक्रेटरी आफ स्टेट लार्ड बर्केनहेड को पत्र लिखा। बर्केनहेड एटन में पिता के साथ थे। उन्होंने मुझे उर्दू सीखने की सलाह दी और लन्दन में रह रहे एक भारतीय छात्र को मेरे शिक्षक के रूप में रखने का सुझाव दिया। बेशक, वे सब अपनी शान्त, शालीन शैली में मेरे लिए चिन्तित थे। लेकिन किसी ने मुझे रोकने की कोशिश नहीं की।’’

उनकी पुरानी आया बर्था ही एकमात्र व्यक्ति थी। जिसने परिवार की अव्यक्त आशंकाओं को उठाया, ‘‘उन भारतीयों के बीच तुम कितनी अकेली होकर रहोगी।’’
मेडिकल ने जवाब दिया, ‘‘बर्था, यह मेरे जीवन में पहली बार नहीं होगा कि मैं अकेली रहूँगी।’’ सचमुच, निर्वासित जो थी वह अपने घर लौट रही थी, और उसका गन्तव्य एक व्यक्ति था, गाँधी; कोई देश नहीं।

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